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टोपी पर इशारा होते ही शुरू हो गयी..टोपी राजनीति...

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सपा कार्यकर्ताओं की टोपी के रंग के सहारे सपा पर निशाना साधने के बाद से सियासी टोपियां फिर से चर्चा में आ गई हैं। इनके रंगों के सहारे अपने लक्षित वोट बैंक को साधने का प्रयास किया जा रहा है।

‘टोपी पहनाना’ और ‘टोपी उतारना’ प्रदेश की राजनीति का ही नहीं, बल्कि हमारे सामाजिक जीवन का भी एक चर्चित मुहावरा है। यह बिना कहे ही बहुत कुछ कह देता है। सियासत में जहां यह विपक्षी पर हमले का जरिया है, तो वहीं विपक्षी इसे उम्मीद की किरण बताते नहीं थक रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गोरखपुर की रैली में टोपी पर दिए बयान ने विवाद पैदा कर दिया है। वैसे तो राजनीति में मुखौटे, झंडा-डंडा, वेशभूषा, खानपान के सहारे वार-पलटवार होते रहे हैं। पर, जो मारक क्षमता टोपियों में है वह किसी अन्य में नहीं। आजादी के समय से ही टोपियां राजनीतिक समर्थन व विरोध का प्रतीक रही हैं। शायद इसीलिए ये सियासत में प्रतीकों के रूप में ज्यादा असरकारी तरीके से काम करती रही हैं। पेश है अखिलेश वाजपेयी का विश्लेषण...

पीएम मोदी की बिसात सजाने की कोशिश तो नहीं

2022 के चुनाव से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने लाल टोपी के जरिये आक्रामक राजनीति का सूत्रपात कर दिया। राजनीतिशास्त्री प्रो. एपी तिवारी कहते हैं, सियासी बिसात पर खुद को केंद्र में ले आना प्रधानमंत्री की शैली की विशेषता है। शायद इसीलिए अब जब प्रधानमंत्री को तीन-चार दिन बाद अपने संसदीय क्षेत्र काशी में नवनिर्मित काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर का लोकार्पण करना है, तो उन्होंने महायोगी गुरु गोरखनाथ के धाम से टोपी के बहाने विपक्ष के हमलों का मुंह अपनी ओर मोड़ने की कोशिश की। विपक्ष भले ही यह स्वीकार न करे, लेकिन मोदी हिंदुत्व, विकास और विश्वास के समीकरणों को एक साथ साधते हैं, शायद इसीलिए उन्होंने उत्तर प्रदेश की सियासत को अपने इर्द-गिर्द करने की कोशिश की है।

अखिलेश का पलटवार... ये इंकलाबी टोपियां

सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने प्रधानमंत्री की बात पर पलटवार करते हुए ट्वीट में 2022 में बदलाव की बात कही। पार्टी के सांसद बुधवार को दिल्ली में संसद भवन में लाल टोपियां लगाकर पहुंचे। समाजवादी पार्टी के ट्विटर हैंडिल से भाजपा पर हमला बोलते हुए एक गाना- जवान के जुनून को!, गरीब के सुकून को!, लड़ाते खुद अवाम को!, जो चूसते हैं खून को, उन आंखों में खटकती हैं समाजवादी टोपियां!, ये इंकलाबी टोपियां!, ये लाल रंग की टोपियां!, समाजवादी टोपियां!... जारी किया गया।
सपा के बाद आप सांसद संजय सिंह ने प्रधानमंत्री की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की काली टोपी पहने फोटो शेयर कर यह ट्वीट किया कि काली टोपी वालों का दिल और दिमाग भी काला होता है, उससे यही साबित होता है कि लड़ाई उसी दिशा में आगे बढ़ रही है जैसा प्रधानमंत्री चाहते हैं।

इस तरह गरमाती रही है राजनीति

- मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ 2018 में भी उस समय टोपी को लेकर ही चर्चा का केंद्र बने थे जब उन्होंने मगहर में कबीर टोपी पहनने से इनकार कर दिया था।
लोकसभा उपचुनाव में फूलपुर में भी योगी का ‘लाल टोपी के सूर्यास्त होने’ का बयान सियासी मुद्दा बना था। त्रिपुरा चुनाव में भाजपा की जीत के बाद लखनऊ में मुख्यमंत्री योगी ने यह बयान देकर त्रिपुरा में लाल झंडा नीचे लाने के बाद ‘यूपी में लाल टोपी भी नीचे लाएंगे’राजनीति में गरमी भर दी थी। इसके अलावा विधानसभा में भी मुख्यमंत्री के निशाने पर लाल टोपी रह चुकी है।
- पिछले दिनों प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव मौर्य भी यह कहकर कि भाजपा ने जालीदार टोपी और लुंगी छाप गुंडों से निजात दिलाई है, यूपी की सियासत में गरमी भर चुके हैं।
सिर्फ जुमलेबाजी या कुछ और...
- बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. शशिकांत पांडेय इस तरह के बयानों को सिर्फ जुमलेबाजी करार देते हैं। वह इन्हें असल मुद्दों की तरफ से ध्यान हटाने वाला बताते हैं। साथ ही लोगों को इनसे बचने की सलाह देते हैं। पर, अतीत के अनुभवों का हवाला देते हुए वे यह भी मानते हैं कि शायद ही कोई इस तरह की जुमलेबाजी से बचने की कोशिश करे, क्योंकि इनसे अपने-अपने वोटों का ध्रुवीकरण करने में आसानी होती है।

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