वादे पे तेरे मारा गया..
उम्मीदवार सीधा साधा
नियम कानून शिथिल कर पार्टियों ने चलाई मनमर्जी
चुनाव की शुरुवात से पहले लंबे चौड़े नियमों का पुलिंदा बनाकर उम्मीदवारों की उम्मीद जगाते हुए तमाम पार्टियों ने आगामी रणनीति का खाका तैयार किया था। लेकिन दरवाजे बारात आते आते तक नियम कानून की पूर्णाहुति देते हुए दूल्हा ही बदल दिया गया। अब ऐसे में लंबे समय से जमीनी स्तर पर लगातार मेहनत कर रहा उम्मीदवार अब खुद को क्षला से महसूस कर रहा है। और उसकी यह मनःस्थिति भले ही उसूलों के बोझ तले दबा दी जाए ।लेकिन ये चिंगारी जब भी फूटेगी बड़ा विस्फोट जरूर करेगी।
आखिर क्या कह रही थी नियमों की लक्षमण रेखा..
चुनावी तारीखें फाइनल होते ही राजनीतिक चहलकदमी शुरू कर दी गयी थी। जगह जगह पर तमाम पार्टियों की मैराथन बैठकों का दौर भी खूब चला..क्या भाजपा..क्या कांग्रेस और क्या अन्य पार्टियां सभी इस महायुद्ध में अपने कार्यकर्ताओं को नियमों का पाठ पढ़ाते हुए आगामी रण की रूपरेखा तैयार करने में जुटी रही। क्षेत्र में अव्वल और जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं में एक नई चेतना फूंकते हुए जनता के बीच संगठन का एक अलग ही माहौल खींचा जाने लगा। खुद को अन्य पार्टियों से अलग और सर्वदा जनता का हितकारी जताते हुते तमाम पार्टियों ने बाकायदा नियमों की लक्षमण रेखा भी तैयार कर दी थी। जिसमें क्रमशः वार्ड के बाहर के प्रत्याशी को टिकिट नहीं देंगे। पिछले चुनाव पार्टी के खिलाफ निर्दलीय चुनाव लड़ने वालों टिकिट नहीं देंगे।जो वार्ड जिसके आरक्षित है। उस वार्ड से उसी वर्ग को टिकिट देंगे। पारिवाद नहीं चलेगा।धन बल नहीं चलेगा।समर्पित कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता मिलेगी। जैसे कठिन नियमों का निष्पक्ष तरीके से संधान करते हुए आगामी चुनाव को लड़ने की बात कही गई थी।
टिकट की घोषणा में धरे रह गए नियम कानून.
महीनों चली जद्दोजहद के बाद आखिरकार वह घड़ी आ ही गयी जब सभी राजनीतिक पार्टियोंने अपने अपने अधिकृत प्रत्याशियों की सूची सार्वजनिक कर दी। लेकिन सूची में अंकित नामों को लेकर एक नया ही बबाल मचने लगा। पार्टियों द्वारा घोषित की गई लिस्टों में न तो नियम की झलक दिखी और न ही पुराने वादों की पुष्टि। बल्कि ज्यादातर वार्डों में तो सिर्फ पार्टियों की मनमानी ही नज़र आई।"द बॉस इस ऑलवेज राइट" की तर्ज पर जारी की गई लिस्ट ने पार्टियों के नियम कानून की धज्जियां उड़ाते हुए जमीनी कार्यकर्ता को झंकझोर के रख दिया।
कहीं खुलकर तो कही दबे लहजे में फूटा गुस्सा
खुद के साथ हुए क्षल और पार्टी की मनमर्जी के खिलाफ कार्यकर्ता का गुस्सा आखिरकार फुट ही पड़ा। वो जो पार्टी का झंडा उठाकर अक्सर पार्टी के कसीदे पढ़ते नज़र आते थे। उनके मुंह से पार्टी के खिलाफ अंगारे बरसने लगे। कुछ ने तो अपनी उपेक्षा का बदला लेने निर्दलीय फार्म तक जमा कर दिया। वहीं कुछ सोशल मीडिया के अखाड़े में जमकर वर्जिश करते नज़र आये।इन सबके बीच एक ऐसा भी तबका है जिसने खून का घूंट पीते हुए अपने आक्रोश को समेट लिया है। लेकिन राजनीतिक जानकार बताते है कि आगामी समय पर यही तबका पार्टी के लिए सबसे घातक साबित हो सकता है। बहरहाल कार्यकर्ताओ का आक्रोश अब आम जनता के सामने खुलकर आ चुका है।
हांथी निकला है पूँछ अभी बाकी है
नामांकन का समय तो निकल गया । अब समय है डेमेजे कंट्रोल का। सभी राजनीतिक पार्टियां अब सिर्फ डेमेजे कंट्रोल पर ही ध्यान देने में जुटी है। इस दौरान नाराज कार्यकर्ताओ को पार्टी के उसूलों की घुट्टी पिला कर उन्हें फिर से एकजुट होते हुए पार्टी को मजबूत करने का पाठ पढ़ाया जा रहा है। कहीं अनुशासन का हवाला तो कहीं आगामी समय पर बड़ा पद देने का लॉलीपॉप थमाते हुए संगठन को मजबूत करने की कोशिशें भी सतत जारी है। लेकिन पार्टियां भी ये भलीभांति जानती है कि टिकिट वितरण से उपजा विवाद इतनी आसानी से शांत नहीं होगा। लेकिन जब तक चाह है तब तक राह है। लिहाजा बागियों को बिठाने और नाराजों को मनाने के लिए पार्टी का डिसास्टर मैनेजमेंट जमीनी स्तर पर एक्टिव हो चला है। वे जानते है कि अभी सिर्फ हांथी निकला है पूंछ अभी बाकी है। कहीं ऐसा न हो कि कार्यकर्ताओ की नाराजगी नगरीय निकाय चुनाव में पार्टी की हार का पैगाम लेकर आ जाए।