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हम बोलेगा.. तो बोलोगे की..बोलता है..

 




● आखिर निगम के चुरवों पर कौन कर रहा मेहरबानी..?

● मास्साब बोले..कोरोना निकल गया अब काय हाथ धोना है..?

● बड़ी फजीहत है साहब..ख़बर लगाओ तो धमकी.. न लगाओ तो सेटिंगबाज..


आखिर निगम के चुरवों पर कौन कर रहा मेहरबानी..??

बीते दिनों निगम कार्यालय के अंदर अपने हाथ की सफाई का कारनामा दिखाते हुए कुछ होनहार चोरों की करामात ने जमकर सुर्खियां बटोरी। मामला सार्वजनिक होते ही जिम्मेदारों ने संयुक्त रूप से कार्यवाही के लिए निगमायुक्त को ज्ञापन भी सौप दिया। लेकिन ज्ञापन के कुछ दिन बाद ही निगम में खड़ी एक गाड़ी के चारों चके गायब मिले। बात साफ थी कि चोर अपने खिलाफ उठ रही आवाजों से बेहद नाराज थे। बरसों से चली आ रही परंपरा को खतरे में आता देख उनकी बिरादरी काफी आक्रामक हो चली है। गाड़ी के गायब चके तो सिर्फ इशारा था की अगर जांच आगे बढ़ी तो सेटिंग की गाड़ी इसी तरह बीच रास्ते में खड़ी हो जाएगी। चोरों की यह हरकत जरूर आम आदमी को चौका सकती है लेकिन खेल में सराबोर हर एक किरदार इस इशारे को बखूबी समझ गया है।और हो भी क्यों न क्योंकि महज महेरी के चक्कर में कोई घी बर्बाद थोड़ी करेगा। सूत्र बताते है कि ऐसी वारदातों को "मिसलेनियस" खाते में जोड़ा जाता है।जिसका बाकायदा हिसाब किताब कर पूरी ईमानदारी से हिस्सा बांट होता है। खैर फ़ाइल बनी है, तो क्या हुआ..निगम के स्टोर में कई फाइलें दफन है।एक और सही .. यही रीत है जहां बरसो से चली आ रही है सिस्टम की मनमानी..आप बस पूछते रह जाओगे की..

आखिर निगम के चुरवों पर कौन कर रहा मेहरबानी..??


मास्साब बोले..कोरोना निकल गया अब काय हाथ धोना है..??

शहर की एक सरकारी स्कूल में भोजन अवकाश के समय एक बच्चा जब हाँथ धोने गया तो वहां उसे न साबुन मिला न अन्य संसाधन।अपनी नादानी के साथ बच्चा इसकी शिकायत लेकर मास्साब के पास पहुंच गया। नादानी वश बच्चे ने सवाल किया कि कुछ साल पहले स्कूल में हाथ धोने के लिए बाकायदा बाल्टी साबुन और तौलिया मिला करता था। बाहर से आए लोगों ने हमें हमेशा हाँथ साफ तरह से धोने के नुस्खे भी सिखाए थे। आखिरी बार सिर्फ 15 अक्टूबर को हमारे हाथ धुलवाए गए थे। बच्चे का सवाल जायज था लेकिन उसे कौन समझाए की सरकारी योजनाएं सिर्फ जनता के पैसों की होली खेलने के लिए ही बनाई जाती है।एक बार मौका निकल जाने के बाद सारा सामान आपस में हजम कर लिया जाता है। भले ही मामा सीएम राइज स्कूल का सुंदर सपना सजाते रहे लेकिन जमीनी हकीकत बच्चे की मासूमी भरे सवालों से साफ बयां होती है। सिस्टम से लाचार मास्साब बच्चे को क्या बताएं कि सिस्टम का क्या रोना है..फिर भी माथे का पसीना पोछते हुए

मास्साब बोले..कोरोना निकल गया अब काय हाथ धोना है..??


बड़ी फजीहत है साहब..ख़बर लगाओ तो धमकी.. न लगाओ तो सेटिंगबाज..

पत्रकार समाज का आईना होता है,यह वह सशक्त आवाज है जो सिस्टम को झंजोर कर उसकी मनमानी पर लगाम लगाता है।लेकिन सेटअप के इस खेल में चौथा खंबा अक्सर उपेक्षा का दंश झेलता आया है। ये तो सभी जानते है कि गलत काम पूरी सेटिंग के साथ अंजाम दिया जाता है।लेकिन सार्वजनिक तौर पर इस नग्न सत्य को लिखने के एवज में अक्सर पत्रकार को भारी कीमत चुकानी पड़ती है।जनता खुलासा तो चाहती है पर सिस्टम के रहनुमाओं को ये दखलंदाजी अक्सर नागवार गुजरती है। यही कारण है कि ख़बर लिखने के बाद उसे न केवल धमकियों का सामना करना पड़ता है बल्कि अपनी ही जमात से पारितोषिक के रूप में बहिष्कार का उपहार भी लेना पड़ता है। हालांकि पत्रकार को धमकी दिए जाने पर कड़ी कार्यवाही का आदेश है।लेकिन आजतक कार्यवाही किसपर हुई ये बताने के लिए कार्यवाही होना भी तो जरूरी है। हकीकत तो यह है कि प्रजातंत्र का यह चौथा खंबा जबतक सिस्टम की सेटिंग को सहारा देता है तभी तक सराहा जाता है।लेकिन जब कभी कोई पत्रकार अपने नैतिक कर्तव्यों का आत्मबोध कर पत्रकारिता का असली धर्म निभाने की कोशिश करता है।तब सभी एकजुट होकर उसे तबाह करने की साजिशें करने लग जाते है। जनता जब भी कभी सिस्टम की नाकारगुजारी से हताश हो जाती है तब वह पत्रकार की शरण लेती है। लेकिन सवाल यह है कि जंजीरों में बंधी कलम न्याय कैसे दिलाए।इस कश्मकश के बीच कोई न कोई पत्रकार मैनेजमेंट के इस खेल के खिलाफ आवाज उठा ही देता है। उसके बाद क्या होता है..?? ये सभी जानते है। उसके इस हश्र से न केवल युवा पत्रकारों को नज़ीर मिलती है बल्कि पत्रकारिता के वृक्ष की जड़ों में कुछ मठ्ठा और डल जाता है। आलम यह है कि पत्रकारिता का वृक्ष दिनों दिन सूखता जा रहा है और मौकापरस्त अमरबेल लगातार पोषण पा रही है। इन सबके बीच अधर में लटका पत्रकार अक्सर यही कहकर खामोश हो जाता है कि..

बड़ी फजीहत है साहब..ख़बर लगाओ तो धमकी.. न लगाओ तो सेटिंगबाज..

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