विकास की कलम/जबलपुर
शराब का नाम आते ही.. सबसे पहला ख्याल मदहोशी का आता है। भले ही शराब का नशा शुरुआत में आपको जोश और ऊर्जा से भर दे लेकिन आखिरकार मदहोशी का सन्नाटा आपको अपनी गिरफ्त में ले ही लेता है। खैर आज हम शराब से जुड़े एक अनोखे साइड इफेक्ट के विषय में चर्चा करने वाले है। खास बात यह है कि इस साइड इफेक्ट की गिरफ्त में आने के लिए शराब का नशा करना जरूरी नहीं है बल्कि इससे प्रभावित होने के बाद बिना इसका सेवन किए अच्छे अच्छों की बोलती बंद हो जाती है। यही कारण है कि जब कभी भी शराब से जुड़ा कोई मामला तूल पकड़ने लगता है तो जिम्मेदार अधिकारियों से लेकर जनप्रतिनिधियों तक यह संक्रमण पहुंच जाता है और आखिरकार खामोशी की चादर ओढ़े यह सन्नाटा अच्छे अच्छों की बोलती बंद कर देता है।
सिंडिकेट की आड़ में करोड़ों के वारे-न्यारे
सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार शहर में इन दिनों शराब व्यापारियों की मनमानी का दौर चरम सीमा पर पहुंच गया है। बढ़े हुए दाम पर ठेका उठाने के बाद अब इसकी भरपाई के लिए शराब ठेकेदार एक अनोखा आपसी गठजोड़ बना चुके हैं जिसे आम भाषा में सिंडीकेट का नाम दिया गया है। जिसके तहत ऊल जलूल दामों पर शराब की बिक्री कर खुले आम जनता को लूटने का कारोबार चलाया जा रहा है। शहर में शायद ही ऐसी कोई शराब दुकान बची हो जहां पर जनता से तयशुदा दामों से अतिरिक्त मूल्य ना वसूला जा रहा हो। हिसाब किताब की बात की जाए तो सुबह से लेकर शाम और देर रात तक शराब व्यापारी हजारों ग्राहकों से 5 से 10 रुपए अतिरिक्त वसूल रहे है नतीजतन व्यापार बंद करने के बाद गल्ले में कईयों हजार रुपए अतिरिक्त कमाई दर्ज की जा रही है यदि एक दुकान का यह हाल है तो आप शहर में खुली सभी दुकानों द्वारा की जा रही अवैध कमाई का हिसाब स्वयं लगा सकते हैं।
दिखावे की कार्यवाही बनी चर्चा का विषय
लगातार आ रही शिकायतों के बाद ऊंघती अनमनी नींद से जागे प्रशासन ने कार्यवाही तो की लेकिन कुछ ही दिनों के बाद हालात जस के तस हो गए। ऐसा नहीं है कि इस अव्यवस्था के विषय में किसी को पता ना हो बल्कि जनता की माने तो जिम्मेदारों के पास रोजाना हो रही इस अवैध कमाई की पल-पल की जानकारी है लेकिन फिर भी कार्यवाही करने में हर किसी को संकोच हो रहा है। हालांकि समय-समय पर जब कभी भी शिकायतों और विरोध के स्वर प्रखर होते हैं तो उन्हें शांत करने के लिए कुछ कार्यवाही कर दी जाती है। लेकिन जिम्मेदारों द्वारा ठोस कदम ना उठाए जाने पर शराब व्यापारी इस कदर बेखौफ हो गए हैं की उन्हें ना तो कार्यवाही का डर है और ना ही लाइसेंस निरस्त होने का खौफ.... वे तो सिर्फ किसी भी हाल में अधिक से अधिक कमाई कर अपना टारगेट पूरा करना चाहते हैं।
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न जाने क्यों खामोश बैठे है जनप्रतिनिधि
जनता अपने बहुमूल्य मत से अपना एक प्रतिनिधि चुनती है जिसका दायित्व होता है कि यदि कहीं पर भी जनता के साथ अन्याय हो तो वह उनका प्रतिनिधि बनकर जनप्रतिनिधि का धर्म निभाएं। लेकिन इस मामले में जनता के चुने गए जनप्रतिनिधि सब कुछ जान कर भी चुप्पी साधे बैठे हैं। रोजाना अखबारों में पूरे साक्ष्य के साथ जनता से हो रही लूट का खुलासा किया जा रहा है लेकिन इसके बावजूद भी जनप्रतिनिधि जनता के साथ हो रहे इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने से कतराते दिखाई दे रहे हैं। कुछ मामलों में कभी कबार राजनीतिक प्रदर्शन का दौर भी दिखाई देता है लेकिन कुछ समय बीतने के बाद आश्चर्यजनक तरीके से पूरा मामला ठंडे बस्ते में कैद कर दिया जाता है।
आबकारी विभाग पर भी उठ रहे सवाल..
कहने को तो शराब कारोबार पर होने वाली अनियमितता पर लगाम लगाने विशेष तौर पर एक विभाग नियुक्त किया गया है। जिसे आबकारी विभाग के नाम से जाना जाता है। लेकिन वर्तमान के हालातों पर नज़र डाली जाए तो यह विभाग महज औपचारिकता निभाने तक ही सीमित रह गया है।जनता द्वारा अक्सर इस विभाग को सवालों के घेरे में खड़ा किया जाता रहा है। आलम यह है कि लगातार पाँव पसार रहे सिंडिकेट के जाल को लेकर विभाग के किसी जिम्मेदार अधिकारी के पास कोई उपाय नहीं है।
पक्के बिल की व्यवस्था बिल में हुई दफ्न
बीते कुछ समय पूर्व शराब व्यापारियों पर लगाम लगाने के लिए नियत दाम का पक्का बिल देने की व्यवस्था की गई थी लेकिन यह व्यवस्था भी पायलट प्रोजेक्ट के तहत कागजों में क्रेश होकर गुमशुदा हो गई खास बात यह है की इतने बड़े राजस्व की पूर्ति करने वाली शराब दुकानों में ऑनलाइन पैसा लेने की कोई व्यवस्था दुरुस्त नहीं है क्योंकि वह अपने इस लेनदेन को नकद में रखकर ही अपनी काली करतूतों को छुपा सकते हैं। शराब खरीदी काबिल ना देना पड़े इसके लिए शराब व्यापारियों ने राजधानी से लेकर दिल्ली तक दौड़ लगा दी और नतीजतन पक्के बिल की यह व्यवस्था न जाने कौन से बिल में दफन हो गई कि आज तक इसका जिक्र सामने नहीं आया।
पीना है तो... लुटना तो पड़ेगा ही..
इधर रोजाना की झिकझिक ने तंग आकर शराब प्रेमियों ने चुपचाप लुट जाने को ही अपनी तकदीर स्वीकार कर लिया है। आखिरकार पीना तो है ही...फिर चाहे 10 रुपए महंगी ही क्यों न मिले। इधर ठेका लेने के बाद से ही शराब व्यापारियों को गुंडागर्दी का भी लाइसेंस मिल जाता है यही कारण है कि शराब दुकान में ज्यादा 3-5 करने वालों को शराब व्यापारी द्वारा पाले गए बाउंसर कुछ इस तरह से समझाते हैं कि दोबारा वह व्यक्ति कभी भी आवाज बुलंद नहीं कर पाता।आखिरकार साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाकर इस कारोबार के खलीफा खामोशी का सन्नाटा कायम कर ही लेते है।
नोट- इस लेख के विषय में आप अपने सुझाव हमें कमेंट बॉक्स में जरूर भेजें..आपके सुझाव से न केवल निष्पक्ष लिखने की ताकत मिलती है बल्कि जिम्मेदारों तक जनता की आवाज पहुचाने का साहस भी प्राप्त होता है।