Vikas ki kalam

ओ फूफा..मुंह जोरी में ने पढ़ियो.. जो पार्टी बोले, चुपचाप वोई करियो..



ओ फूफा..मुंह जोरी में ने पढ़ियो..
जो पार्टी बोले, चुपचाप वोई करियो..





विकास की कलम/संपादकीय

5 साल के बाद एक बार फिर से वह अद्भुत दौर आने वाला है। जहां एक निचले स्तर के नेता की अहमियत इतनी ऊंची हो जाती है कि शीर्ष पर बैठे आला कमान खुद गले से लगाते हुए , तरह-तरह की मान मनुहार के साथ , उसे मनाने का प्रयास करते हैं। इस दौरान कई बार पार्टी परिवार से पुराने संबंधों का वास्ता देकर इमोशनली ब्लैकमेल करते हुए रिसियाए फूफा को पुटिया लिया जाता है। तो कई बार खट्टी-मीठी धमकियों के साथ बगावत के सुरों को दफन करने का प्रयास किया जाता है।



लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि पुरी शिद्दत के साथ अपनी भूमिका अदा करने वाला व्यक्ति आखिर रिसियाना फूफा बन कैसे जाता है। इस गंभीर विषय पर दर्शनशास्त्र के जानकार बताते हैं कि
5 साल तक देहरी पर बैठे कुर्सी को तकने वाला जब एक झटके में दर किनार कर दिया जाता है। तो आत्म प्रतिशोध की ज्वाला में जलता मन , व्यक्ति विशेष को अपने आप रिसियाए फूफा की पदवी पर बिठा देता है।

इस दौरान क्रोध की आग में घी डालने वाले मुंह जोरों की भूमिका भी काफी सराहनीय होती है। कई बार स्थितियां ऐसी भी होती है कि फूफा रिसियाना नहीं चाहते लेकिन मुंह जोरो द्वारा फैलाई गई लोक निंदा के चलते स्वयं की लाज बचाते हुए उन्हें ना चाह कर भी फूफा की तरह मुंह फुलाना ही पड़ता है।

बात करें मुंह जोरो की तो.. इनका अपना एक अलग ही इतिहास है। इन्हें ना तो पार्टी से सरोकार है और ना ही किसी की जीत हार से। ये तो सिर्फ माचिस लगाने वाला वह व्यक्तित्व है जो अपने मजे के लिए किसी का भी चरित्र तबाह कर सकता है।

मुंह जोरों के इतिहास पर नज़र डाली जाए तो आदि काल में वे निचले स्तर के दास..या अपने आका की विरुदावली गाने वाले तुक्ष्य जन मात्र हुआ करते थे। लेकिन आज के परिवेश में वे एक बुद्धिजीवी कहे जाने वाले तथाकथित वर्ग के समूह से आते है।

हालांकि इन मुँहजोरो के चक्कर में फंसकर कइयों ने अपनी फ़जीहत करवाई है। और बाद में पश्चाताप की अग्नि में जलकर घर वापसी करते हुए धन और धर्म दौनों से बेगाने हुए है।

मौसम मुँहजोरो के साथ है पर फूफा को इस दौरान हालातों की फिजा में विशेष ध्यान रखना होगा। अपने आस पास भटकने वाले हर शुभचिंतक के बीच मुँहजोरो को पहचानते हुए उनसे विशेष दूरी बनानी होगी।
कहीं ऐसा न हो..की मुँहजोरो के चक्कर में पड़कर फूफा का आत्म-सम्मान उछाल मार जाए। और आती हुई खटिया.. जूट के बोरे में तब्दील हो जाए..

नए दौर के फुफ़ाओं को पुराने दौर के फुफ़ाओं से सीख लेकर आगे कदम बढ़ाना होगा.
जब तक ढंग से पैर न जम जाएं तब तक
शांति के साथ कार्यक्रम में दरी बिछाना होगा।


कान को कच्चो होवे से अच्छो है,
कि हर काम सोच समझ के करियो..

ओ फूफा..मुंह जोरी में ने पढ़ियो..
जो पार्टी बोले, चुपचाप वोई करियो..






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