Vikas ki kalam

काय.. चम्पक चाचा , निर्दलीय लढ़हें.. का..

काय.. चम्पक चाचा , 

निर्दलीय लढ़हें.. का..






विकास की कलम/संपादकीय


लो भैया सबर की सुपारी मुंह में पूरी घुल गई। लेकिन जोन ने मान को पान खिलावे को वादा करो हतो वो तो.. लबरा निकर गओ।

हालांकि जा बात से चम्पक चाचा को कोई खास फर्क नहीं पड़ रहो। लेकिन चाचा के छर्रों को पूरो भूगोल बिगड़ गओ है। काय से की , छर्रों ने चाचा के चक्कर में चौक के चौरादारों से गजबई फसा रखी है। अब ऐसे में चाचा अगर पीछे हट हें , तो छर्रों को पिछवाड़ा और चबूतरा दौनों टूटबो पक्को है। जेई कारण है कि अब छर्रे चाचा को चुनावी दंगल में निर्दलीय कुदावे के लाने पीछे पड़े है। आखिरकार छर्रे भी तो जनता कहलाते है। और चारों ओर चर्चा है कि जनता की अपार डिमांड में चाचा निर्दलीय उतर कर अपनो कैरियर स्वाहा करवे के लाने उतारू है।



चाचा बखूबी जानत है कि छर्रों के चक्कर में.. बे दौनों दीन से चले जाहें..


लेकिन मुसीबत जा है कि संकोच की पढ़िया छर्रों के दुआरे ही बीआत है।अब ऐसे में अगर छर्रे बिचक गए तो चाचा संग खड़ो कौन होहे...

हालांकि चाचा ने बड़ी तरकीब लगा कर छर्रों को पुटियात भये , उन्हें पार्टी के प्रति वफादारी की चटनी चटावे की भरपूर कोशिश करी। लेकिन छर्रों को अतिउत्साह चाचा की चटनी पर भारी पड़ गओ।

ऐसे पहले की... चाचा डेमेज कंट्रोल कर पाते..आखिरकार आखिरी लिस्ट आ ही गई। और आला कमान ने चाचा को चुनाव में टिकट की जगह , चादर समेटवे को काम सौप दओ।




अब आपई बताओ अगर चाचा चादर समेटहे तो.. छर्रा का करहें। ये फरमान तो छर्रों के अधिकारों का अतिक्रमण है। एईसे छर्रों ने भी ठान लई है कि, चाहे जो कछु हो जाए....

ऐ बार तो चुनाव में चाचा की आहुति देई देहें।
और चाचा की ऐसी छिछड़ लैदर करहें की पार्टी भी मरते दम तक याद रख है।


अब इस पूरे मैटर में चाचा की चिंता जा है कि, छर्रों के चक्कर में सालों की तपस्या स्वाहा भई जा रही है। और वे कछु कर भी नई पा रहे। उनको बस चले तो आजई आलाकमान के पांव पकड़ कर चादर समेटवे को काम स्वीकार कर लें। पर छर्रा भिसक जाहें...

चाचा की जेई हालत देख के शायद वह कहावत बनी हुईहै कि.. जब सांप छछुंदर खा लेता है तो फिर...
न तो उसे लील पाता है ....
और न ही उगल पाता है।
चाचा की हालत भी आजकल एसई हो गई है।


इधर चाचा... पार्टी के आला कमान को अपनी बफादारी का पक्का सबूत दिखा रहे है। उधर छर्रे चाचा के निर्दलीय चुनाव लड़वे की पुष्टि कर चाचा की फ़जीहत में चार चांद लगा रहे है।

हद तो तब हो गई जब चाचा ने सुबह सुबह चाय की चुस्की लेते हुए। उंगली में थूंक लपेट कर जैसे ही अखबार का पन्ना पलटा तो , खुद के निर्दलीय चुनाव लड़ने की खबर पहले कॉलम में छपी देखी। ख़बर में विशिष्ट सूत्रों का हवाला दिया गया था। चाचा समझ गए कि जे सारा रायता उनके छर्रों का ही बगराया हुआ है।


इधर पार्टी के आला कमान भी अपनी आंखें ततेरते हुए चाचा चोंचलों को खत्म करने का बहाना ढूंढने लगे।

चाचा समझ गए है कि जल्द ही अगर कुछ किया न गया तो...

आने वाले समय में उनके छर्रे उनके राजनीतिक कैरियर का पिंड-दान कर उन्हें अतीत का नेता घोषित कर देंगे।


बताया जा रहा है कि चाचा के छर्रों ने उनकी राजनीतिक जीवन की अंतिम यात्रा को निर्दलीय कन्धों पर चढ़ा कर चुनावी ढोल बजवाना शुरू भी कर दिया है।


राजनीति के इतिहास में निर्दलीय लड़ने वाला अक्सर घर वापसी का मुंह ताकता रहता है।

कभी कभार ही ऐसी किस्मत टकराती है कि निर्दलीय लड़कर राज सिंघासन मिलता है। लेकिन चाचा ये बखूबी जानते है कि न तो उनकी प्रतिष्ठा सिंघासन वाली है और न ही उनकी कुंडली के गृह राजयोग वाले..
लिहाजा लुटिया डूबना तो तय है..



तो गुरु ये बात तो तय है कि..
या तो चाचा पार्टी के चहेते बनकर चुपचाप दरी समिट वाएं...
या फिर छर्रों को समेटे रखने के चक्कर में अपनी राजनीति को ही सुल्टा दें..

खैर चुनावी बुखार शहर की जनता के सर चढ़कर बोल रहा है..
यही कारण है कि..अब चौराहे पर हर कोई बस यही सवाल पूछ रहा है कि..


काय.. चम्पक चाचा , निर्दलीय लढ़हें.. का..


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