Vikas ki kalam

15 दिन के मासूम के लिए छुट्टी में भी खुल गया स्वास्थ्य विभाग,


इंसानियत ने तोड़ी सरकारी छुट्टी की दीवार
15 दिन के मासूम के लिए छुट्टी में भी खुल गया स्वास्थ्य विभाग, अधिकारियों ने निभाई इंसानियत की ड्यूटी





विकास की कलम/जबलपुर 


वो जो कहते थे कि सरकारी दफ्तर में बिना जान पहचान के कोई काम नहीं होता उनके मुंह पर जोर दार तमाचा जड़ते हुए । जबलपुर जिला अस्पताल के कुछ अधिकारियों ने पूरे शहर का सर फक्र से ऊंचा कर एक मिशाल पेश की...रविवार का दिन, जब सरकारी दफ्तरों में सन्नाटा होता है, कर्मचारी अपने परिवार के साथ समय बिताते हैं, और चारों ओर एक विश्राम का माहौल रहता है। ऐसे दिन में जब एक नवजात की जान संकट में आई, तब जबलपुर का स्वास्थ्य विभाग महज़ एक संस्था नहीं, बल्कि एक संवेदनशील अभिभावक की तरह सामने आया। ताले टूटे, कुर्सियाँ खिसकीं, और कलमें चलीं... ताकि उस नन्हे दिल की धड़कन थमने से बच जाए। यह कोई आम प्रशासनिक कार्रवाई नहीं थी, बल्कि एक जीवित उदाहरण था कि जब सरकार के लोग अपने दायित्व को सेवा समझने लगते हैं, तो चमत्कार भी संभव हो जाते हैं।



सपनों से सजी गोद में आया संकट का तूफान


पाटन निवासी स्वप्निल पटेल और उनका परिवार अपने नवजात बेटे विनायक पटेल के आगमन से फूले नहीं समा रहा था। घर में पहली बार किलकारियों की गूंज सुनाई दी थी। बच्चों के कपड़े खरीदे गए, नामकरण की बातें हो रहीं थीं, और मां की गोद में हर दिन एक नए सपने पल रहे थे। लेकिन तभी जिंदगी ने एक ऐसा मोड़ लिया, जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। विनायक अचानक सुस्त पड़ने लगा, मां की गोद में हलचल कम हो गई, और उसकी आंखों की चमक बुझने लगी। परिवार को यह समझने में देर नहीं लगी कि कुछ गंभीर है।



दिल में छेद की खबर बनी काल जैसी घड़ी




बच्चे को लेकर जैसे ही स्वप्निल पटेल निजी अस्पताल पहुंचे, डॉक्टरों ने गहन जांच की। जब उन्होंने यह कहा कि बच्चे के दिल में छेद है, तो जैसे पूरी दुनिया थम गई। एक मासूम जो अभी ठीक से सांस लेना भी नहीं सीख पाया था, उसके जीवन को एक ऐसी चुनौती का सामना करना था जो किसी भी अभिभावक की कल्पना से परे होती है। माँ-पिता की आँखों में आंसू थे, लेकिन चेहरे पर सिर्फ एक सवाल—अब क्या होगा? उस समय कोई उम्मीद की किरण दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही थी।




एक फोन कॉल ने खोले सरकारी दफ्तरों के ताले




अस्पताल के डॉक्टरों ने उन्हें राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम (RBSK) के बारे में जानकारी दी, जिसके तहत बच्चों के हृदय रोगों का नि:शुल्क उपचार करवाया जाता है। उन्हें बताया गया कि इस कार्यक्रम के ज़िला प्रबंधक सुभाष शुक्ला से संपर्क किया जाए। घबराए हुए परिजनों ने बिना देरी किए सुभाष शुक्ला को फोन लगाया। शुक्ला ने बात सुनते ही मामले की गंभीरता को समझा, और अपने निजी समय को दरकिनार कर दिया। उन्होंने न सिर्फ कार्यालय खुलवाया, बल्कि पूरी प्रक्रिया को तत्काल गति देने का निर्णय लिया।


एक जिम्मेदार अफसर, जो छुट्टी में ड्यूटी कर बना मिसाल


सुभाष शुक्ला ने उस वक्त केवल एक अधिकारी की भूमिका नहीं निभाई, बल्कि एक बड़े भाई और रक्षक की तरह काम किया। उन्होंने यह सोचकर कदम नहीं बढ़ाया कि छुट्टी है, या यह उनका काम नहीं है, बल्कि यह मानकर कि एक मासूम की जान उनके निर्णय पर टिकी है। उन्होंने त्वरित रूप से मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. संजय मिश्रा से संपर्क किया और उन्हें भी कार्यालय बुलवाया। कुछ ही समय में विभागीय दफ्तर की दीवारों में मानवीय चिंता की हलचल साफ दिखने लगी।


फाइलों की रफ्तार ने धड़कनों को दी राहत




कार्यालय में जैसे ही अधिकारी पहुंचे, प्रक्रिया को यथाशीघ्र प्रारंभ किया गया। फाइलें खोली गईं, दस्तावेज़ों को तैयार किया गया, और डिजिटल सिस्टम पर बच्चे का मेडिकल विवरण अपलोड किया गया। सामान्यतः जिन कार्यवाहियों को पूरा करने में दो-तीन दिन लग जाते हैं, वह सब कुछ कुछ ही घंटों में पूरा कर दिया गया। कोई समय नहीं गंवाया गया क्योंकि हर मिनट बच्चे की जान पर भारी पड़ सकता था।


मुंबई रवाना हुआ विनायक, निशुल्क होगा इलाज





सारी कार्यवाही पूर्ण होते ही, विनायक को तत्काल मुंबई स्थित कार्डियक सुपरस्पेशियलिटी अस्पताल के लिए रवाना किया गया। यह पूरी व्यवस्था राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत की गई, जिसमें यात्रा से लेकर भर्ती, इलाज, दवाएं और देखभाल तक सभी कुछ पूरी तरह निशुल्क होता है। परिवार को आर्थिक बोझ से राहत मिली, और सबसे बड़ी बात—बच्चे की जान बचने की उम्मीद उनके भीतर फिर से जाग उठी।



अधिकारियों की संवेदनशीलता बनी मिसाल


मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. संजय मिश्रा ने बताया कि आने वाले दो दिन और छुट्टियाँ थीं। ऐसी स्थिति में अगर निर्णय में देरी होती, तो बच्चे की जान को खतरा हो सकता था। उन्होंने कहा, "हमारे लिए यह सिर्फ एक मामला नहीं था, यह मानवता का प्रश्न था। प्रशासन का यह कर्तव्य है कि जब किसी की जिंदगी हमसे जुड़ी हो, तो हम समय, दिन और दफ्तर के समय की सीमा को न देखें,बल्कि दिल से काम करें।"


परिजन बोले – “हमें फिर से उम्मीद मिली”




बच्चे के पिता स्वप्निल पटेल की आंखें भरी हुई थीं, लेकिन उनमें अब भय नहीं, कृतज्ञता थी। उन्होंने कहा, "हमारे लिए सबकुछ खत्म हो चुका था। हम समझ नहीं पा रहे थे कि इतनी बड़ी बीमारी का इलाज हम कैसे कराएंगे। लेकिन सुभाष शुक्ला और डॉ. मिश्रा ने हमें विश्वास दिलाया कि हम अकेले नहीं हैं। उन्होंने जो किया, वो किसी मसीहा से कम नहीं है।"


मौसी की आंखें नम, लेकिन भरोसे से भरीं


बच्चे की मौसी ने कहा, "हमने कभी नहीं सोचा था कि रविवार को सरकारी दफ्तर खुलेगा, और अधिकारी खुद आकर मदद करेंगे। लेकिन जो हमने देखा, वह हर सोच से परे था। सरकारी तंत्र की यह संवेदनशीलता सचमुच अविश्वसनीय थी। अब हमारे भांजे को नया जीवन मिलेगा, और हमें इस देश की स्वास्थ्य व्यवस्था पर गर्व है।"




कागजों से नहीं, इंसानियत से पूरी हुई प्रक्रिया



यह घटना एक मिसाल पेश करती है कि सिस्टम अगर चाहे, तो चमत्कार कर सकता है। यहाँ नियमों से नहीं, भावनाओं से काम हुआ। कागजों से नहीं, इंसानियत से प्रक्रिया पूरी हुई। जब एक अफसर अपनी कुर्सी से उठकर आम इंसान की तरह सोचता है, तब एक मासूम की धड़कन फिर से चलने लगती है। यह खबर किसी प्रशासनिक रूटीन की नहीं, एक इंसानी जज्बे की कहानी है जो याद रखी जाएगी।


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